अमर लोक का भेद। कैसे जाए, कबीर अदभुत ज्ञान
कबीर साहिब जी ने हनुमान जी को अपनी शरण में लेने की कथा धर्मदास जी को सुनायी।
"कहै कबीर धर्मदास समझाई, त्रेतायुग में हनुमान चेताई,
सेतुबन्ध रामेश्वमर हम गए, नाम मुनीन्द्र से हम जाने गए"
कहै मुनीन्द्र सुनो हनुमान, तुमको अगम सुनाऊँ ज्ञान,
मन में आपके जो अभिमान, तज अभिमान सुनो तुम ज्ञान,
सतपुरुष की कथा सुनाऊँ, अगम अपार भेद समझाऊँ,
सतसुकृत की कथा यह भाई, मर्म समझ नहीं आया आपकी,
सतपुरुष की कथा अपार, उसपर तुमही करो विचार,
उसकी गति तुम समझ ना पाये, पूर्ण पुरुष जो सब में समाये,
किसकी सेवा करते भाई, वह सब मुझे कहो समझाई,
रामचन्द्र तो है अवतार, प्रलय में जाये हर बार।
"तीन लोक में निरंजन तुम, जिनके गुण गावौं,
वह समर्थ कोई ओर है, उसको जान न पावौं"
परमात्मा ने कहा कि इन तीनों लोको में निरंजन तक का ही गुणगान होता है, उससे ऊपर पूर्ण प्रभु/सतपुरुष को कोई नहीं जानता जिसने सब ब्रह्माण्ड बनाया।
👉(तब हनुमान जी ने कहा)...
"सुनो मुनीन्द्र ढृढ़ कर ज्ञान, तब तो भेद हुआ निरबान,
सतपुरुष का भेद बताओ, हमसे कुछ भी नहीं छुपाओ।
👉(तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी कहा)...
हे हनुमान सुनो मेरा ज्ञान, तुम्हें बताऊँ भेद विधान,
सतपुरुष/समर्थ का भेद बताऊँ, तुमसे कुछ भी नहीं छुपाऊँ।
आदि अनादि पार से भी पार, उसका अगम में सुनो विचार,
जो विश्वास जीव में होता, सतशब्द की छाया पाता,
समर्थ की शरण है बड़ी प्यारी, वहाँ बल पौरुष सुख है भारी,
तादिन की यह कथा सुनाऊँ, जो मानो तो कहि समझाऊँ,
समझ करो अपने मन माहीं, अकथ है वह कहने की नाहीं,
क्या विश्वास करे कोई भाई, देखी सुनी ना वेदो ने गाईं,
जो संदेश मेरा नहीं मानै, हंस गति को वो नहीं जानै,
तभी तो कष्ट सहे भवसागर, जो ना मानैं दुःख पावै नर,
सतशब्द मैं कहूं बखान, समझौ तो ये बूझो ज्ञान,
"समझ करौ हनुमान तुम, तुम हो हंस स्वरूप,
राम-राम क्या करते हो, पड़े अंधेरे कूप"
"राम-राम तुम कहते हो, नहीं वे अकथ स्वरूप,
वे तो आये जगत में, हुए दशरथ घर भूप"
"अगम अथाह तुमसे कहुँ, सुन लो अगम विचार,
ना वहाँ प्रलय उत्पत्ति, वहीं समरथ सृजनहार"
👉👉 (मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमानजी को आदि सृष्टि का ज्ञान दिया)...
सुनो हनुमान कथा यह न्यारी, तब नहीं थी कोई आदि कुमारी,
जिससे हुआ है सकल विस्तार, वह नहीं थी तब रचानाकार,
आदि भवानी जो महामाया, उसकी नहीं बनी थी काया,
नहीं निरंजन की उत्पत्ति कीन्हा, समर्थ का घर कोई न चीन्हा"
तब नहीं ब्रह्मा विष्णु महेष, अगम जगह समर्थ का देश,
तब नहीं चन्द्र सूर्य और तारा, तब नहीं अंध कूप उजियारा,
तब नहीं पर्वत और ना पानी, समर्थ की गति किसी ने ना जानी,
तब नहीं धरती पवन आकाश, तब नहीं सात समुन्द्र प्रकाश,
पाँच तत्व गुण तीन नहीं थे, यहाँ तहाँ पर कुछ भी नहीं थे,
दश दिगपाल नहीं थे लेखा, गम्य अगम्य किसी ने ना देखा,
दशों दिशा की रचना नहीं थी, वेद पुराण व गीता नहीं थी,
मूल डाल वृक्ष न छाया, उत्पत्ति प्रलय नहीं थी माया,
तब समर्थ था आप अकेला, धर्म माया ना मन का मेला,
बिन सतगुरु कौन ये बतावै, भूली राह कौन समझावै,
"हनुमत यह सब बूझ कर, कर लो अपना काज,
निर्भय पद को पाकर तुम, होगा अभय सब राज"
👉(तब हनुमान जी ने कहा)...
सुनो मुनीन्द्र वचन हमारा, हम नहीं समझे भेद तुम्हारा,
कहो विश्वास कौन विधि आये, कैसे मन विश्वास जमायै,
कैसे इस विश्वास को पावैं, तब हम मन वामे लगावैं,
जहाँ समर्थ वहीं पर हम जावैं, तब मन में विश्वास जमावैं,
वहाँ पहुँचकर वापस आऊँ, तब सच्चा विश्वास मैं पाऊँ,
जो तुमने सब सत्य कहा है, मेरे देखने की ईच्छा है,
फिर मैं आपकी शरण में आऊँ, बार-बार फिर शीश नवाऊँ,
सब कुछ तुम दिखाओ मुझको, झूठा नहीं समझूं फिर तुमको,
"सुनो मुनीन्द्र बिन देखे, नहीं विश्वास मैं पाऊँ,
आदि सृष्टि की कहते हो, वहाँ कौन विधि जाऊँ"
👉👉 (तब मुनीन्द्र श्रषि जी ने हनुमान जी के बार-बार विनय करने पर सतलोक के दर्शन कराये)...
जब ऐसे बोले हनुमान, उठे मुनीन्द्र मन में जान,
उठते देखा फिर देखा नहीं, हुए विदेह मुनीन्द्र तब वहीं,
पवन रूप में गए आकाश, बैठे पुरुष विदेही पास,
चहुँदिशि देखे हनुमत वीर, किस प्रकार का हुआ शरीर,
साथ चले धरती पग धारी, परम प्राण वहाँ लगी खुमारी,
देखा चन्द्र वरण उजियार, अमृत फल का करै आहार,
असंख्य भानु जैसे पुरुष छवि थी, करोड़ों भानसी रोम-रोम थी,
चारों दिशाओं में नजर घुमा रहे, हार गये जब बता ना पा रहे,
तब हनुमत ने वचन कहै भारी, तुम हो मुनीन्द्र अति सुखकारी,
प्रकट होकर दर्शन दीजै, मेरे हृदय का दुख हर लीजै,
"धर के देह मुनीन्द्र तब, आये हनुमत पास,
वरण वेष कुछ ओर था, सत्य पुरुष प्रकाश"
(जब हनुमान जी ने सतलोक में मुनीन्द्र श्रषि को नूरी विदेह रूप में सतपुरुष के सिंधासन पर विराजमान देखा तब वह जान गए कि यहीं प�
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